विश्व मंदिर परिषद
हिंदू मंदिरों और भक्तों का वैश्विक संघटन
धर्म एव हतो हन्ति धर्मो रक्षति रक्षितः ।
तस्माद्धर्मो न हन्तव्यो मा नो धर्मो हतोऽवधीत् ।
आशीर्वाद
प.पू.स्वामी गोविंददेवगिरि महाराज
प्रमुख मार्गदर्शक
मा. श्री. मदन महाराज गोसावी
(निवृत्त न्यायाधीश)
संकल्पना व संयोजक
संकल्पना :
हमारी पवित्र भारतभूमी में अनेकों मंदिर स्थित हैं । भारतवासियों की उज्जल जीवन प्रणाली की आत्मा है श्रद्धा, भक्ति, तथा आस्तिक भाव । इस भूमि पर हजारों वर्षों से सनातन वैदिक संस्कृति की पावन, सशक्त, धारा निरंतर प्रवाहित हो रही है । इस प्रवाह को गतिशील रखने में मंदिरों, देवस्थानों तथा तीर्थस्थानों का अमूल्य सहयोग रहा है । भारत पर हजारों वर्षों से निरंतर आक्रमण होते रहे हैं परन्तु भारतीय संस्कृति आज भी बनी हुई है । छोटे छोटे गाँवों, कस्बों में स्थित मंदिरों का नाता वहाँ के इतिहास एवं संस्कृति से, पौरुषीय पराक्रमों से जुडा हुआ है । आज के वर्तमान में बहुतांश मंदिर अपने अनूठे शौर्य की प्रेरणा को उजागर करते हुए अपना अस्तित्व बनाए हुए हैं । धर्म, संस्कृति, समाज, इतिहास, परंपरा, आदर्श, सच्चरित्रता एवं शाश्वत जीवनमूल्यों का वस्तुनिष्ठज्ञान देनेवालीं हमारी मंदिरें शक्तिपीठ हैं । वैदिक धर्म की तात्त्विक छत्रछाया के तले, विशाल एवं ठोस नींव पर विचारों का अभिसरण करनेवाला ज्ञान, विज्ञान, शिक्षा, संस्कार. मनोरंजन तथा अनुभूति की अक्षय धरोहर को मुक्तरुप से चहुँ ओर पहुँचाने वाले देवालय एक संस्कारालय ही सिद्ध होते थे.. शायद आज भी कहीं कहीं होंगे ।
समाज के सर्वस्तरीय लोगों को खुल कर अपने साथ ले कर , उन्हें कार्यप्रवण करनेवाली, समाज में संतुलन बनाए रखनेवाली एक सुदृढ व्यवस्था इन मंदिरों मे, मठों में लंबे समय तक व्यवस्थित रुपसे चल रही थी । प्रकृति, समाज, संस्कृति, शिक्षा, उत्सव, पर्यावरण आदि मूलगामी बातों से जुडी हुई, समस्त समाज का आधार बनी हुई, सभी को समाहित कर चलनेवाली व्यवस्था, अपने उत्तम व्यवस्थापन के साथ सफलतापूर्वक इन मंदिरों - मठों में बनी हुई थी । गाँवों, कस्बों में स्थित मंदिरों के निकट धर्मशाला अवश्य बनवाई जाती थी जहाँ तीर्थयात्रियों की पूरे सेवाभाव से आरोग्यसंपन्न व्यवस्था का प्रावधान मंदिरों के सहकार्य से होता था । व्यक्तिगत, पारिवारिक तथा सार्वजनिक उत्सवों का आयोजन सफलतापूर्वक किया जाता था । व्यक्ति तथा समष्टी (समाज) को जोडनेवाली व्यवस्था मंदिरों मे थी । यज्ञमंडप, यज्ञशाला, गौशाला, नक्षत्रबन, धन्वंतरी वाटिका आदि से ये मंदिर संपन्न होते थे । वे मंदिर पथिकों के लिए विश्रामस्थान , भाविकों का श्रद्धास्थान, कलाकारों का स्फूर्तिस्थान तथा ज्ञानियों के लिए आश्रयस्थान सिद्ध होते थे ।
समय के साथ बहुत कुछ बदल गया । भारतीय संस्कृति के साथ साथ देवस्थानों, मंदिरों एवं मठों पर चारों ओर से, अंदर्रबाहर से बौद्धिक, सामाजिक तथा पारिवारिक स्तर पर नृशंस आक्रमण हुए जिसके फलस्वरुप हमारे समस्त धार्मिक संस्थान आहत होते गए, क्षीण होते गए और सामाजिक अनुबंध से विलग होते गए । समाज निष्क्रिय और निद्रावश हो गया । धर्मशालाऍं खंडहरों में बदल गई । सेवा का भाव नष्ट हो गया और मंदिर व्यवस्था खत्म हो गई । मंदिरों में एक दूसरे को आधार देनेवाली, समन्वय रखने वाली व्यवस्था नष्ट हो गई । हिंदू देवस्थान अलग थलग पड़ गए । सिख्खों के गुरुद्वारों की जिम्मेदारी शिरोमणि प्रबंधक समिति ने ली है एवं मस्जिदों के लिए वक्फ बोर्ड स्थापित है । जैन , ईसाई आदि धर्मों की बागडोर प्रांतिक तथा राष्ट्रीय स्तर के संगठनों ने सम्हाल ली है मात्र हिंदू देवस्थान असंगठित हैं । कुछ संगठनों द्वारा थोडासा प्रयत्न किया जाता है परन्तू उसका कोई प्रभाव नजर नहीं आ रहा है । उनमें आपसी समन्वय नहीं है । व्यापक हित की दृष्टि से एकत्रित होकर एक दूसरे को मदद करते हुए सरकार में अथवा समाज मे अपनी बात रखने की कोई व्यवस्था नहीं है ।
भारत में स्थित मंदिर तथा अन्य देशों में मौजूद मंदिरों को सौहार्द के साथ संलग्न होना चाहिये । उनके बीच संवाद होना चाहिये और उनकी सामाजिक भूमिका के साथ उन्हें एक सूत्र में बांधना आवश्यक है । इन सभी उद्देशों की परिपूर्ति हेतु ‘भारतीय देवस्थान परिषद’ की स्थापना की गई है । सपूर्ण विश्व के लिये यह समय ’संक्रमण काल’ है । हिन्दू मन तथा समाज, हजारों वर्षों से छाई सुस्ती को त्याग कर नई चेतना को जागृत कर रहा है । इस शुभ कार्य में प.पू.पीठाचार्य, अधिकारी व्यक्तिगण, विविध क्षेत्रों के जानेमाने मान्यवर लोग, कई मंदिरों के न्यासी, अवकाश प्राप्त अधिकारी गण आदि मान्यवरों के द्वारा ‘भारतीय देवस्थान परिषद’ की स्थापना की गई है ।